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२३. आश्रम की आर्थिक समस्या
१९२६के अंत में श्री माताजी ने आश्रम का सारा उत्तरदायित्व उठा लिया। उस समय तो शिष्यों की संख्या केवल २४ थी। सभी बहुत मितव्ययता से रहते थे, इसलिये खर्च का कोई प्रश्न ही नहीं था। पर धीरे-धीरे साधकों की संख्या बढ़ने लगी, आश्रम की प्रवृत्तियों का भी विस्तार होने लगा। उसके लिये पैसों की आवश्यकता पड़ने लगी, परन्तु श्रीअरविंद किसी से चन्दा लेने के विरुद्ध थे। कोई दाता स्वेच्छा से आश्रम को दान दे तो स्वीकार किया जाता था, पर आगे जा कर आश्रम के लिये माँग करना या चन्दा एकत्र करना, साधकों को भी इसकी सख्त मनाही थी। आश्रम के बहुत सारे शुभचिंतकों ने श्रीअरविंद से इसके लिये स्वीकृति लेने का प्रयत्न किया कि बंगाल, महाराष्ट्र गुजरात के श्रीमती से दान की माँग की जाए तो बहुत रुपये मिले और आश्रम को फिर कभी पैसों की तंगी नहीं होगी, पर श्री अरविन्द ने इसके लिये कभी अनुमति नहीं दी! एक बार एक साधक को किसी कारणवश तीन सौ रूपयों की तत्काल आवश्यकता हुई। उसने श्री माताजी से यह रकम माँगी। तब श्रीमाताजी के पास बचत का एक रूपया भी नहीं था। श्रीमाताजीने द्युमान को बुलाकर पूछा, 'तीन सौ रूपये हैं?'। 'नहीं माताजी, अभी तो हम बहुत आर्थिक तंगी में हैं।' श्रीमाताजी ने अपनी अलमारी का खाना खोलकर सोने का एक गहना निकाला और द्युमान के हाथ में रखकर कहा, 'जाओ, यह बेचकर पैसे ले आओ...' यह सुनकर द्युमान को बहुत आघात लगा। Page -93 माताजी का गहना बेचने जाना पड़ेगा? यह कैसी कठिन स्थिति है? वे चिंतित हो गए। तब माताजी ने कहा, 'विचार मत करो, शीघ्र बेचकर पैसे ले आओ।' पैसा प्राप्त करने के लिये उस समय द्युमान के पास दूसरा कोई रास्ता ही नहीं था। इसलिये गहना लेकर उन्हें बाजार जाना पड़ा। सोना बेचने का उनके जीवन में यह पहला प्रसंग था। पर उन्होंने चार दुकान घूमकर, भावताव करके अधिक से अधिक कीमत में बेचकर पैसे माताजी के हाथ में रख दिये। परंतु एक गहना बेचकर कोई आर्थिक समस्या हल नहीं हो सकती थी। द्युमान को अभी तो इससे भी कठिन काम करने थे। दूसरे विश्वयुद्ध ने आश्रम की आर्थिक आपत्ति को अधिक बढा दिया। आश्रम में साधकों के उपरांत उनके कुटुम्बीजन और बच्चे भी सुरक्षा के लिये आने लगे। इन सबके निर्वाह का प्रश्न था। उपरांत बालकों की पढ़ाई न बिगड़े, इसके लिये श्रीमाताजी ने आश्रम में पाठशाला भी आरम्भ कर दी। अब इन सबके लिये बहुत पूँजी की आवश्यकता थी। स्वैच्छिक दान तो उस समय नहीं के बराबर ही आता था। इस कारण पैसे कहीं से प्राप्त करें, यह बहुत बड़ा प्रश्न था। श्रीमाताजी ने इस प्रश्न का भी समाधान कर दिया। एक दिन उन्होंने द्युमान को बुलाया और पूछा, द्युमान तुमको आसक्ति है ?' 'नहीं माताजी।' द्युमान बोले। तब श्रीमाताजी ने पेरिस में उनके कुटुम्बियो के दिये हुए अति मूल्यवान गहनों का डब्बा बाहर निकाला, उसमें से गहने निकालकर ढ़ेर कर दिया और कहा, 'बाजार में जाकर बेच आओ, अभी आश्रम को पैसे की बहुत आवश्यकता है।' यह सुनकर, इतने कीमती गहने देखकर युमान तो दिग्मूढ हो गये। अरे! माताजी के रिश्तेदारों ने उनको भेंट के रूप में दिये इतने कीमती गहने इस प्रकार कैसे बेच दें? वे तो स्तब्ध होकर खड़े ही रह गये। माताजी ने उन्हें जागृत करते हुए
अब माताजी का आदेश था, पर अन्दर से दिल नहीं मानता था। मन में सोच रहे थे, ऐसा काम भी करना है? फिर भी माताजी का आदेश मानकर बाजार गए। झवेरी को बुलाकर लाए। गहनों की कीमत आँकी गई। अभी वर्तमान भाव के अनुसार तो उनकी बहुत बड़ी कीमत होगी। झवेरी को लगा कि इन लोगों को पैसे की बहुत आवश्यकता है इसलिये जिस भाव से माँगूगा, उस भाव से दे देंगे। उसने बहुत कम कीमत में खरीदने की तैयारी बताई। बाजार भाव से भी यह भाव बहुत कम होने से द्युमान ने उससे कहा 'हमें यह गहने इस भाव में नहीं बेचना है। तुम जाओ। जब बेचना होगा तब बता देंगे। ' वह झवेरी तो चला गया। फिर द्युमान ने विचार किया। ये तो श्रीमाताजी के गहने हैं। सुनार तो इन्हें गलाकर नये गहने बनाएगा, इसके बजाय तो श्रीमंत साधकों को यदि प्रस्ताव रखें तो वे प्रसादी के रुप में ले जाएंगे और कीम्रत भी अधिक देंगे। इस योजना के अनुसार उन्होंने श्रीमंत साधकों को गहने देकर, अच्छी मात्रा में रकम एकत्रित करके श्रीमाताजी को दी। श्रीमाताजी द्युमान की व्यवहार कुशलता देखकर प्रसन्न हो गई। इस प्रकार उस समय तो आश्रम की आर्थिक समस्या का हल हो गया। एक बार पुन: तत्काल पैसों की आवश्यकता हुई तब श्रीमाताजी ने द्युमान को पुन: बुलाया। श्रीमाताजी को उनकी दादीमाँ ने चांदी की एक बहुत मूल्यवान बड़ी भेंट में दी थी। उसे अलमारी में से निकालकर द्युमान को देकर कहा, 'इसे बेचकर आओ।' यह सुनकर युमान को फिर बहुत आघात लगा। वे जानते थे कि दादीमाँ की स्मृतिचिह्न जैसी यह मूल्यवान घड़ी श्रीमाताजी को बहुत ही प्रिय है। इसलिये वे यह घड़ी बेचने में आनाकानी करने लगे। उन्होंने कहा,।'माताजी! यह नहीं बेचनी है। ' तब श्रीमाताजी ने उन्हें कहा, 'भावना Page-95 में बहे बिना, यह काम करना है। तत्काल पैसों की आवश्यकता है। ' द्युमान को श्रीमाताजी की आज्ञा माननी ही पड़ी। मजबूर होकर घड़ी हाथों में ली, पर बाजार में बेचने के बदले उद्योगपति लालजीभाई हिंडोचा के पास गये, उन्हें परिस्थिति बतार्ड़। घड़ी उन्हें दी। लालजीभाई ने उसके दस हजार रूपये दिये, जिसका आज दस लाख रूपयों से अधिक मूल्य है। युमान ने श्रीमाताजी के हाथ में रकम रख दी। घड़ी लालजीभार्ड़ के घर पहुँच गई है यह भी बता दिया। तब श्रीमाताजी प्रसन्न हो गईं। जब लालजीभाई श्रीमाताजी के दर्शन करने आए, तब श्रीमाताजी ने उन्हें इतना ही कहा, 'मेरी दादीमाँ की घड़ी अपनी अलमारी में सम्मालकर रखना। '' यह सुनकर लालजीभाई की आँखों में आँसू आ गए, उन्हें लगा कि, ' श्रीमाताजी की कितनी प्रिय वस्तु मुझे मिली है। ' इसके बाद श्रीमाताजी ने अपनी दादीमाँ के दिये हुए गहने भी द्युमान को बेचने के लिये दे दिये। इस विषय में द्युमान ने एक पत्र में लिखा है कि, 'श्रीमाताजी ने माणिक और नीलम वाला सोने का मुकुट मुझे बेचने को दिया। मोती के हार, हीरे के गहने, नीलम, माणिक और पुखराज के पेरिस के गहने भी मुझे बेचने को दिये। यह सब आश्रम के लिये मुझे बेचना पड़ा। भेंट में मिली हुई कितनी अति मूल्यवान वस्तुऐं भी माताजी ने निकाल दीं। यह सब बेचने का आघातजनक काम मुझे करना पड़ा। इसके कारण कभी-कभी ब्रेकडाउन जैसी स्थिति हो जाती थी। मुझे गहरा आघात लगता था, पर मैं क्या करूँ ? 'माताजी के आदेश शिरोधार्य करता हूँ। मैं उनका आज्ञाकारी सेवक हूँ। कुछ भी बोले बगैर चुपचाप बाजार में गहने खरीदने वाले के पास जाता, उसे बुलाकर लाता हूँ। सौदा करके रकम माताजी को सुपुर्द करता, तब मेरा हृदय बैठने लगता है।' आश्रम चलाने के लिये श्रीमाताजी को गहने बेचने पड़े हैं, ईसका पता साधकों को भी नहीं था। आश्रम कैसी कठिन आर्थिक Page-96
इस शोध के बदले, द्युमान ने मुम्बई के उद्योगपति केशवदेव पौदार (नवजात) को पत्र लिखकर परिस्थिति की जानकारी दी। उन्होंने तत्काल एक लाख रुपये भेज दिये और कहा, धीरे धीरे साड़ियां बेचकर जो रकम मिले वह भी माताजी को अर्पण कर देना। इस प्रकार उस समय की आपात स्थिति भी द्युमान ने अपनी व्यावहारिक बुद्धि कौशल से सम्भाल ली। इसके बाद तो द्युमान को लक्ष्मीजी, गणेश और कुबेर की अनुभूति होने से पैसों को कभी तंगी नहीं पड़ी। श्रीमाताजी के कार्य के लिये जितनी चाहें, उतनी रकम एकत्रित कर सकते थे। Page-97 |